अध्यात्म का एक पक्ष है- योग और तप। दूसरा है पुण्य परमार्थ। दोनों की संयुक्त शक्ति से ही समग्र शक्ति उभरती और स्थायी सफलता की पृष्ठभूमि बनती है। एक पहिये की गाड़ी कहाँ चलती है? एक पैर से लम्बी यात्रा करना और एक हाथ से तलवार चलाते हुए युद्ध जीतने का उपक्रम कहाँ बनता है?
योग का तात्पर्य है- भावना, आकाँक्षा, विचारणा की उत्कृष्टता के साथ जोड़ देने वाला चिन्तन प्रवाह। ताप का अर्थ है- संयम, अनुशासन, परिशोधन, साहस और अनौचित्य के साथ संकल्प युक्त संघर्ष। यहाँ उतना बन पड़े तो समझना चाहिए कि आत्मोत्कर्ष का सुनिश्चित आधार खड़ा हो गया। आत्मबल का भण्डार भरा और व्यक्ति सर्व समर्थ-सिद्ध पुरुष- महामानव बना।
इस उपार्जित आत्म-शक्ति का उपयोग विलास, वैभव, यश सम्मान के लिए करना निषिद्ध है। उसे ईश्वर के खेत में बीज की तरह बोया और हजार गुना बनाने के लिए सोचा संजोया जाना चाहिए। यही है- पुण्य परमार्थ का मार्ग। साधु ब्राह्मण-योगी-यती आजीवन लोक मंगल के प्रयोजनों में अपनी क्षमता नियोजित करते रहे हैं। यही है समग्रता का मार्ग जो भी साधक इस अध्यात्म तत्व दर्शन के सिद्धान्त एवं विज्ञान को समझेंगे अपनायेंगे। वे इस क्षेत्र में चरम सफलता प्राप्त कर सकने में समर्थ होंगे, यह निश्चित है। निराशा तो भ्रमग्रस्त में -टकराव में उलझने वाले-सस्ते रास्ते ढूंढ़ने वालों को ही हैरान करती है