इस संसार में अनेक प्रकार के पुण्य और परमार्थ हैं। दूसरों की सेवा-सहायता करना पुण्य कार्य है, इससे कीर्ति, आत्मसंतोष तथा सद्गति की प्राप्ति होती है। इन सबसे भी बढ़कर एक पुण्य-परमार्थ है और वह है-`आत्मनिर्माण’। अपने दुर्गुणों को, विचारों को, कुसंस्कारों को, ईर्ष्या, तृष्णा, क्रोध, द्रोह, चिंता, भय एवं वासनाओं को, विवेक की सहायता से आत्मज्ञान की अग्नि में जला देना इतना बड़ा धर्म है, जिसकी तुलना सहस्र अश्वमेधों से नहीं हो सकती। अपने अज्ञान को दूर करके मन-मंदिर में ज्ञान का दीपक जलाना,
अपने अज्ञान को दूर करके मन-मंदिर में ज्ञान का दीपक जलाना, भगवान की सच्ची पूजा है। अपनी मानसिक-तुच्छता, दीनता, हीनता, दासता को हटाकर निर्भयता, सत्यता, पवित्रता एवं प्रसन्नता की आत्मिक प्रवृत्तियाँ बढ़ाना, करोड़ मन सोना दान करने की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है। हर मनुष्य अपना-अपना आत्मनिर्माण करे, तो यह पृथ्वी स्वर्ग बन
सकती है। फिर मनुष्यों को स्वर्ग जाने की इच्छा करने की नहीं,वरन् देवताओं को पृथ्वी पर आने की आवश्यकता अनुभव होगी। दूसरों की सेवा-सहायता करना पुण्य है, पर अपनी सेवा-सहायता करना, इससे भी बड़ा पुण्य है। अपनी शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक नैतिक और आध्यात्मिक स्थिति को ऊँचा उठाना, अपने को एक आदर्श नागरिक बनाना, इतना बड़ा धर्म-कार्य है, जिसकी तुलना अन्य किसी भी पुण्य-परमार्थ से नहीं हो सकती।