वामन का मतलब होता है बौना, यानि कि छोटा। वामन वही नहीं होते जिनकी लम्बाई कम होती है। वामन वे भी होते हैं, जिनके व्यक्तित्व की ऊँचाई कम होती है। जिनके मन-अन्तःकरण छल-कपट से भरे होते हैं। जिनकी भावनाएँ दूषित-कलुषित होती हैं। ऐसे लोग भले कितने बुद्धिमान, तर्ककुशल व साधन सम्पन्न हों, भले ही उनके पास कितनी ही अलौकिक शक्तियाँ- सिद्धियाँ एवं ऋद्धियाँ-निधियाँ क्यों न हों? परन्तु अपने छल-कपट के कारण, भावों की अशुद्धि के कारण उन्हें सदा ही वामन कहा और समझा जाता है। इसके विपरीत शुद्ध अन्तःकरण, छल-प्रपंच से दूर, निष्कलुष हृदय वाले व्यक्ति अपने व्यक्तित्व से सदा विराट् होते हैं। तीनों लोकों में उनकी ख्याति होती है। स्वयं परमेश्वर भी उनकी सराहना करते हैं।
पुराणों में कथा है- जब स्वयं भगवान् अपने छल के कारण विराट् होने पर भी वामन कहे गये। इस रोचक कथा प्रसंग में वर्णन है कि स्वयं भगवान् विष्णु को परम धर्मात्मा बलि के पास याचक बनकर वामन के रूप में जाना पड़ा। धर्म परायण दैत्य राजा बलि ने भोग-विलास में डूबे रहने वाले स्वर्गाधिपति इन्द्र को पराजित कर देव व्यवस्था संभाल ली। स्वर्गाधिपति हो जाने के बाद भी बलि सदा तप एवं यज्ञ में निरत रहते थे। उनकी रुचि सुशासन, विष्णु भक्ति एवं तप-यज्ञ में थी न कि भोगों में। देवगणों ने इन्द्र के साथ मिलकर भगवान् विष्णु से प्रार्थना कि- कृपा कर उन्हें देवलोक वापस दिलाएँ। इस प्रार्थना पर भगवान् को भारी असमंजस हुआ, क्योंकि धर्मपरायण-परमभक्त बलि से युद्ध करना सम्भव नहीं था।
आखिर उन्हें वामन का रूप धरना पड़ा। पाँच वर्ष के तेजस्वी ब्राह्मण के रूप में उन्होंने महाराज बलि की यज्ञशाला में प्रवेश किया। महाराज बलि एक पल में ही अपने आराध्य को पहचान गए। उन्होंने भक्ति भरे मन से कहा आज्ञा करें भगवन्! उत्तर में वामन बने विष्णु ने तीन पग भूमि माँगी। बलि के हाँ कहते ही भगवान् वामन से विराट् हो गए। और उन्होंने दो पगों में स्वर्ग व धरती एवं तीसरे में स्वयं बलि को नाप लिया। देने वाले महाराज बलि अपना सर्वस्व देकर प्रसन्न थे। परन्तु भगवान् को अपने द्वारा किए छल पर क्षोभ था। उन्होंने बलि से कहा- वत्स इस अमिट दान के कारण तुम्हारी कीर्ति सदा अमर रहेगी। जबकि मेरे छल के कारण मुझ विराट को भी सदा याचक एवं वामन ही कहा जाएगा।