क्षण भंगुर लालसाओं और उनकी तृप्ति को लक्ष्य नहीं बनाया जा सकता। जो अभी हैं, अभी नहीं हैं। जिनके रंग-रूप पल-पल बदलते हैं। जिनके पूरी होने से मिलने वाली तृप्ति, नहीं पूरी होने से मिलने वाली अतृप्ति से गहरा अवसाद एवं विषाद देती है। ऐसी क्षण भंगुर माया मरीचिका भला जीवन का लक्ष्य कैसे हो सकती है। लक्ष्य को तो सदा शाश्वत्-सर्वकालिक एवं शान्तिदायक होना चाहिए।
महान सन्त गुरजिएफ अपने शिष्यों से कथा कहते थे- आकाश में उड़ने वाली चिड़िया को अपने से थोड़ी ही दूर एक चमकता हुआ श्वेत बादल दिखा। उसने सोचा- चलो मैं उड़कर उस बादल को छू लूँ। ऐसा सोचते हुए वह चिड़िया उस बादल को अपना लक्ष्य बनाकर अपनी पूरी क्षमता से उड़ चली। लेकिन हवाओं के साथ अठखेलियाँ करता वह बादल कभी पूर्व में जाता तो कभी पश्चिम में और कभी तो वहीं रुककर चक्कर खाते हुए चक्करों का चक्रव्यूह रचाने लगता। यही नहीं कभी वह छुपता तो कभी प्रकट हो जाता। अपनी बहुतेरी कोशिशों के बाद चिड़िया उस तक नहीं पहुँच सकी।
प्रयासों के इस दौर में उसने पाया कि जिस बादल के पीछे वह अपने जीवन को दाँव में लगाकर भाग रही थी, वह अचानक हवा के झोकों से छट गया है। अपने अथक प्रयत्न के परिणाम में उस चिड़िया ने देखा कि अरे! यहाँ तो कुछ भी नहीं है। इस सच को देखकर उस चिड़िया को अपनी भूल का अहसास हुआ। उसके जाग्रत् हो चुके अन्तर्विवेक ने कहा; यह तो बड़ी भूल हो गयी। यदि लक्ष्य बनाना हो तो क्षण भंगुर बादलों को नहीं बल्कि पर्वत की चोटियों को बनाना चाहिए, जो शाश्वत और अनन्त है।
गुरजिएफ की यह बोध कथा प्रायः हम सभी के जीवन में घटित होती है। हममें से अनेक क्षण भंगुर बादलों की ही तरह क्षण भंगुर लालसाओं को लक्ष्य बनाने के भ्रम में पड़े रहते हैं। यदि वे अन्तर्विवेक के प्रकाश में देखें तो निकट ही अनादि और अनन्त परमात्मा की पर्वतमालाएँ भी हैं। जिसे जीवन का लक्ष्य बनाने से सदा-सर्वदा कृतार्थता और धन्यता ही उपलब्ध होती है।
-डॉ. प्रणव पण्ड्या